भारत शुरू से ही सन्तों का देश रहा है। यहाँ की जनता ने हर समय में इनको हमेशा आदर और सम्मान से देखा है। नए विचार और नई आस्थाएं रखने वालों की बात को सोच समझ कर सराहा है और अगर दिल ने गवाही दी है तो उसे बग़ैर झिझक अपना लिया है।
हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती सजिस्तान से आये थे जिसको (सिस्तान) भी कहा जाता है, लेकिन भारत की अवाम बहोत प्यार दिया और आप हिन्दलवली कहलाये
लोगों और संस्कृति में रच बस कर अजमेरी कहलाए और पक्का भारतीय होने का गौरव प्राप्त किया।
जहाँ तक बाहर से आने का ताल्लुक़ है, सभी भारत में बाहर से आए। फ़र्क सिर्फ़ इतना रहा कि कोई पहले और कोई बाद में, बक़ौल जेम्स टॉड :
" दुनिया के सभी मनुष्य का मूल स्थान एक ही था वहीं से ये लोग पूर्व की तरफ आए।"
हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती एक मेवे के दरख़्त (पेड़) के समान हैं, जिसकी जड़ें ईरान में हैं, जिस पर परवान अरब में चढ़ा और जिस पर मेवा हिन्दोस्तान में आया। मुईन शब्द का अर्थ है- सहायक, मददगार, हिमायती, पृष्ठ-पोषक और हज़रत मुईनुद्दीन हसन चिश्ती में यह सारी खूबियां विद्यमान हैं। इसी कारण नए शहर, नए देश, नई संस्कृति नए विश्वास और नई आस्थाओं के लोगों में इस क़दर लोकप्रिय हो गए कि भारत के लोगों ने कई उपाधियाँ दे डालीं। कोई ग़रीब नवाज़ तो कोई पैग़म्बर (अवतार) का उपहार ।
हिन्दोस्तान की जनता और सन्तों पर अपनी रूहानियत की ऐसी छाप लगाई कि हिन्दोस्तान के रूहानी बादशाह कहलाए और जिस पर सभी ने गर्व महसूस किया।
नाईबे- - मुस्तुफ़ा, दरीं किश्वर रश्के पैग़म्बरां मुईन उद्दीन
उपरोक्त शैर के लेखक हज़रत नवाब ख़ादिम हसन गुदड़ी शाह बाबा - 3 ही इस पुस्तक मुईन-ए-जहाँ के लेखक हैं। लेखक हज़रते ख़्वाजा के भक्तों में थे, जिन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी ख्वाजा गरीब नवाज कि मुहोब्बत में गुज़ारी
وَاللَّهُ يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهِ مَنْ يَّشَاءُ وَاللهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيم
यख़तसों बे रेहमत-ए-ही मई यशाओ ज़ुल फज़लिल अज़ीम
खास कर देता है अपनी रहमत व फज्ल के साथ जिस को चाहे और अल्लाह बड़ा फज्ल वाला है।
सुराए इमरान आयत 63
هُوَ الْمُعِينُ الْمُسْتَعِينُ
हुवल मुईन उल मुस्तईन
ख़ानदानी हालात
हिन्दुस्तान के रूहानी बादशाह हज़रत ख़्वाजा मुईन उद्दीन हसन चिश्ती अजमेरी पिता की ओर से हुसैनी हैं तथा माता की और से हसनी' हैं। आपके पिता हज़रत सैय्यद ख्वाजा ग्यास उद्दीन संयमी तथा सदाचारी थे। पारिवारिक शिष्टता के साथ धनवान तथा वैभवशाली भी थे। आपके गुरूजन, सन्तगण खुरासान के उच्च महान व्यक्ति थे। आपका मज़ार बग़दाद (इराक़) में प्रजा का दर्शन स्थल है। आपकी माँ का नाम बीबी उम्मुल वरा- बीबी माहेनूर है। आप हज़रत बिन अब्दुल्लाह ख़ली की साहबज़ादी हैं। आप के दो सगे भाई भी थे।
गौस पाक से सम्बन्ध
हज़रत शैख़ मुहि उद्दीन अब्दुल क़ादर जीलानी' हज़रत अब्दुल्लाह अल हुबली के पोते हैं और हज़रत ख्वाजा ग़रीब नवाज़ की वालदा पोती हैं। दोनों के वालिद आपस में भाई हैं। इस रिश्ते से ग़रीब नवाज़ की वालदा ग़ौस पाक की चचाज़ाद बहन हैं और ग़ौस पाक ग़रीब नवाज़ के मामू होते हैं।
ख्वाजा गरीब नवाज का जन्म कहाँ हुआ ।
जन्म
आपके पूर्वजों का निवास स्थान संजरिस्तान या सीसतान है कुछ ने इसे संजर या सिज़दान भी लिखा है। मगर आपका जन्म स्थान असफहान (इरान) है। यहाँ जिस मोहल्ले में आप का जन्म हुआ वह भी आपके पैत्रिक मकानी सम्बन्ध के कारण संजर प्रसिद्ध हुआ मगर आपका खानपान संजर (इलाका) सीसतान (इराक़) में रहा।
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उपाधियां (ख़िताबात और अल्काब)
आपको दरबारे ख़ुदावन्दी से हबीब अल्लाह (ईश्वर का प्रियतम) की उपाधि मिली तथा दरबारे रिसालत से 'कुतुब उल मशाइख़ बररो बहर' की उपाधि मिली।
हिन्दुल वली
नाईबुन नबी
अताए रसूल
पएम्बर के उपहार
ख़्वाजा बुजुर्ग
गरीब नवाज़
महान ख्वाजा
गरीबों के संरक्षक
सुल्तानुल हिन्द
भारत के आध्यात्मिक शासक
नाइब ए रसूल पैग़म्बर के प्रतिनिधि के ख़िताबात से भी आप याद किए जाते हैं।
चिश्ती कहलाने का कारण
ख़्वाजा अबु इसहाक शामी से चिश्तिया (देशात 14 रबी उल आखिर 329 हि. ) सिलसिला (सम्प्रदाय) का आरम्भ हुआ क्योकि आप हज़रत ग़रीब नवाज़ के पीरों में से थे । इसलिए ग़रीब नवाज़ भी चिश्ती कहलाये।
बचपन
दूध पीने की उम्र में जब कोई स्त्री अपना बच्चा लेकर आपके यहां आ जाती और उसका बच्चा दूध के लिए रोता तो आप अपनी माँ की तरफ इशारा करते कि आपका दूध उसे पिला दिया जाए। आपकी माँ आपका इशारा समझ जाती और उस बच्चे को दूध पिला देती। इस दृश्य से आप बहुत प्रसन्न होते और ख़ुशी से हँसते।
जब आप की आयु तीन चार साल की हुई तो आप अपने हमउम्र बच्चों को बुलाते और उन्हें खाना खिलाते। एक बार ईद के अवसर पर हज़रत ख़्वाजा बचपन में सुन्दर कपड़े पहने नमाज़ के लिए जा रहे थे। रास्ते में आपने एक अन्धे लड़के को फटे पुराने कपड़ों में देखा। आपको उस पर दया आई। उसी समय अपने वस्त्र उतार कर उस बालक को दे दिये और उसे अपने साथ ईदगाह ले गये आप अपने हमउम्र वाले बच्चों के साथ कभी खेलकूद में शामिल नहीं हुए।
प्रारम्भिक शिक्षा
प्रारम्भिक शिक्षा आपने घर पर प्राप्त की। नौ वर्ष की आयु में कुरान शरीफ हिफ़्ज़ किया इसके बाद संजर (इराक़) के तालीमी इदारों में दाखिल हो गए। यहां आपने तफसीर (कुरान की व्याख्या), हदीस और मज़हबी तालीम हासिल की तथा थोड़े समय में बहुत इल्म (ज्ञान) हासिल कर लिया।
यतीमी
रसूल-ए-खुदा की तरह आप भी यतीम (पितृहीन) हुए जब की आपकी आयु 15 वर्ष थी। आपके वालिद बुज़ुर्गवार (पूज्यपिता) ने नश्वर संसार से परलोक की ओर कूच किया। आपके पिता के विसाल के बाद जब पैतृक सम्पत्ति का बंटवारा हुआ तो आपके हिस्से में एक बाग़ और पनचक्की आई। इन की आय से आप जीवन बिताते थे।
हज़रत इब्राहीम सूफ़ी मज़्ज़ूब से मुलाक़ात, आप अपने बाग़ में पानी दे रहे थे कि हज़रत इब्राहीम कनदोजी वहां आये आप उनके साथ आदर से पेश आये और एक अंगूर के खोशे से उनकी ख़ातिर की। सूफ़ी आप के इस सद्व्यवहार से बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने एक खल का टुकड़ा निकाल कर दान्त से कुतरा और आपको दिया इस के खाते ही अल्लाह ने सिर्फ अपनी तरफ करलिया इसके बाद। बाग़ और पनचक्की बेचकर धन ग़रीबो, यतीमों में बाँट दिया और ईश्वर की प्राप्ति के लिए यात्रा आरम्भ कर दी। सबसे पहले आप खुरासान पहुंचे और फिर बुख़ारा जब समरकन्द (रूस) में इल्म ए ज़ाहिर हासिल किया। आपने मौलाना हिसाम उद्दीन बुखारी और मौलाना शरफ़ उद्दीन से इल्म (विद्या) प्राप्त किया। समरकन्द व बुखारा मेंआपने इल्म-ए-ज़ाहिर हासिल किया।
इराक़ से अरब और हारून (इरान) की यात्रा,
इराक़ से आप मक्का व मदीना की यात्रा पर रवाना हुए। हज़रत नसीर उद्दीन चिराग़ दहलवी देहान्त के कथनानुसार अरब से वापसी पर आप ने हारून की यात्रा की।
हारून में आपका मुरीद होना
अरब की यात्रा के बाद आप हारुन (इरान) में प्रविष्ट हुए जिस का वर्तमान नाम हारुनाबाद है और मशहद (इरान) के निकट स्थित हैं। वहां आपने ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान हज़रत ख्वाजा उस्मान-ए-हारुनी के हाथ पर मुरीद होने का सम्मान प्राप्त किया। 20 वर्ष गुरू ( मुर्शिद) की सेवा में व्यस्त रहे और ख़िरका-ए-ख़िलाफ़त हासिल किया।
बग़दाद में सूफ़ी सन्तों से मुलाकातें
आप दरवेशों से मेलजोल रखते थे अपने ज़माने के बहुत से दरवेशों से आपने मुलाक़ातें की। हारुन से आपने बग़दाद में प्रवेश किया तथा कुछ समय वहां निवास किया इस काल में शेख अहद उद्दीन किरमानी, शेख शहाब उद्दीन उमर सौहरवर्दी सुलूक (दरवेशी की प्रारम्भिक अवस्था) में थे। इस अवसर पर आपने शेख शहाब उद्दीन के मुर्शिद जिया उद्दीन अबु नजीब सौहरवर्दी से मुलाकात की।
बग़दाद से शाम (सीरिया) की तरफ यात्रा तथा वापसी
ग़रीब नवाज़ फ़रमाते हैं "एक बार प्रार्थी (ग़रीब नवाज़) एक नगर में पहुंचे जो शाम (syria) के निकट हैं यहाँ एक बुज़ुर्ग अहमद मोहम्मद वाहिदी गज़नवी एक गुफा में रहा करते थे। यह बहुत दुर्बल थे और आसन पर बैठे थे दो शेर उनके सामने खड़े थे शेरों को देख गरीब नवाज वही रुके
जब उन बुजुर्ग ने देखा तो फ़रमाया 'चले आओ डरो मत अगर तुम किसी को नुकसान नहीं पहुंचाओगे तो कोई तुम्हे भी हानि नहीं पहुंचायेगा शेर क्या चीज़ है, जो अल्लाह से डरता है तो सब उससे डरते है।' इसके बाद पूछा 'कहां से आना हुआ ?' दुआगो ने कहा 'बग़दाद से', कहने लगे 'खूब आये परन्तु ये आवश्यक है कि दरवेशों की सेवा किया करो ताकि बुजुर्ग हो जाओ।' फिर फ़रमाया 'लोगों से दूर होकर इस गुफा में रहता हूँ। तथा एक डर से तीस वर्ष रोते हो गये।' प्रार्थी ने कहा 'वह क्या है ?' फ़रमाया 'वह नमाज़ है। जब मैं नमाज़ पढ़ता हूं तो यह देखकर रोता हूं कि इस नमाज़ की क्या हक़ीक़त है। जो मैं पढ़ता हूँ क्योंकि अगर ज़र्रा भर भी नमाज़ की शर्त दिल से निकल जाये तो मेरा किया हुआ बेकार हो जाये।" फिर फ़रमाया 'ऐ दरवेश, अगर नमाज़ का हक़ अदा किया तो बड़ा काम किया वरना उम्र ग़फ़लत (बेपर्वाई) में गुज़ारी।"
किरमान (इरान) की यात्रा
शाम (सीरिया) की यात्रा से बग़दाद वापस आकर किरमान के शासक मुहिउद्दीन तुगरिल के काल में आपने किरमान की यात्रा की। इस यात्रा से सम्बन्धित हज़रत दलील उल आरेफ़ीन में हज़रत ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ का ब्यान निम्नानुसार है :
एक बार मैं और शेख अहमद उद्दीन किरमानी, किरमान की यात्रा कर रहे थे। यहां एक बुजुर्ग से भेंट हुई। ये बहुत बूढ़े थे। मैंने उनके पास पहुंचकर सलाम किया यह बुज़ुर्ग बहुत दुर्बल थे। बात भी बहुत कम करते थे मुझे ख्याल आया उनसे पूछूं कि आप इतने ज़ईफ (बूढ़े) क्यों हैं ? क्योकि वह ज्ञानी थे उन्होंने मेरे पूछने से पहले फ़रमाया 'ऐ दरवेश एक दिन मित्रों के साथ मेरा क़ब्रिस्तान में गुज़र हुआ मैं कब्र के निकट बैठ गया अचानक वहां पर कोई हंसी की बात हुई। उस पर मैं ज़ोर से हंसा। मज़ार से आवाज़ आई। ऐ गाफिल (बेख़बरी) जिसके सामने कब्र की मंज़िल व मौत का फ़रिश्ता उपस्थित हों और मिट्टी के नीचे जिसके मित्र सांप, बिच्छू हो। उस को हंसी से क्या काम।' जब मैंने यह सुना वहां से उठ खड़ा हुआ तथा मित्रों के हाथ चूमकर विदा हुआ। इसके बाद इस गुफा में आकर मुकीम (निवास किया) हुआ। आज तक इस घटना के भय से कांप रहा हूं। चालीस वर्ष से शर्म के कारण आसमान की ओर नहीं देखा।"
हिन्दुस्तान की पहली यात्रा और वापसी
हमदान (इरान) में प्रवेश
सैरुल- आरेफ़ीन के लेखक (पृष्ठ 7) लिखते हैं- "आप बग़दाद से हमदान में गये। यहां शेख युसुफ हमदानी से भेंट की।" शेख यूसुफ़ (अबू यूसुफ़) हमदानी ये समय ग़रीब नवाज़ के जन्म के बाद का है। इसलिए इस यात्रा में उनसे मुलाकात होना सम्भव नहीं है। परन्तु ये संभव है कि यात्रा क्रम के दौरान आपने मराह (जो बुखारा (रूस) के निकट है) में पहुंचकर मज़ार की ज़ियारत की।
तबरेज़ (इरान) में प्रवेश
हमदान से तबरेज़ में पहुंच कर आपने शेख उल मशाईख हज़रत ख़्वाजा अबु सईद तबरेज़ी से भेंट की। आप हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी के पीरो मुर्शिद हैं। हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया के अनुसार " आप इतने महान व्यक्ति थे कि हज़रत जलालुद्दीन तबरेज़ी जैसे 70 मुरीद आप की सेवा में हाज़िर रहते थे। "
इसतराबाद में प्रवेश
तबरेज़ से इसतराबाद पहुंचकर आपने शेख नासिरुद्दीन इसतराबादी से मुलाकात की। यह एक महान दरवेश थे। उनकी आयु 170 वर्ष की थी। शेख अबु सईद अबुल ख़ैर और शेख अबुल हसन ख़िरकानी की संगति से फैज़याब (रूहानी लाभ) होने पर फखर (गर्व) किया करते थे। यह दो वास्ता (दो रिश्तो) से बायज़ीद बुसतामी से सम्बन्ध रखते थे।
बुख़ारा (रुस) में प्रवेश
ग़रीब नवाज़ फ़रमाते हैं- “यात्रा के दौरान बुख़ारा में एक (अन्धे) बुज़ुर्ग से भेंट हुई। यह इबादत में बहुत लीन थे। मैंने पूछा 'आप नाबीना कब से हो गये ?' उत्तर दिया 'जब मेरा काम कमालियत (चमत्कार) को पहुंचा तथा वहदानियत (ऐक त्व) व अज़मत
(इ जत) पर नजर पढ़ने लगी तो एक दिन मेरी नज़र गैब पर पड़ गई। गैब से आवाज आई मुद्दई (वादी) "तू हम से प्रेम करता है परन्तु किसी और गैर की तरफ देखता है।
'जब यह आवाज सुनी तो ऐसा शर्मिन्दा हुआ कि बारगाहे ख़ुदाबन्दी में प्रार्थना की जो आँख दोस्त के सिवा और को देखें वह अंधी हो जायें। अभी यह बात अच्छी तरह कहने भी नहीं पाया था कि दोनों आंखों की रोशनी चली गई।"
खिरकान में प्रवेश
खिरकान पहुंचकर आपने शेख अलहसन विरकानी के मज़ार से फैजान प्राप्त किया।
समरक़न्द (थ) में प्रवेश
ख्वाजा गरीब नवाज फरमाते हैं कि यात्रा काल में मैं समरकन्द में था यहां अबुल- लैस समरकन्दी के मकान के निकट एक मस्जिद भी इस की मेहराब के कार्य की दिशा होने के सम्बन्ध में एक दानिशन्द ने एतराज किया मैने इस मेहराब के सही काबे की दिशा में होने का सहानी से इत्मिनान करा दिया।"
मेमना में प्रवेश मेमना पहुंचकर आपने हजरत ख्वाजा अबु सईद अबुल और के मज़ार से फैजेबानी हासिल किया तथा मेमना (स्तन) में आपने दो वर्ष के लगभग कयाम किया।
हिरात (अफगानिस्तान) में प्रवेश .
इसके बाद आपने हिरात में प्रवेश किया। यहाँ आप अधिकतर हजरत शेख अबदु अनसारी के मजार पर रात में शब बेदारी (ज़िक्रउल्लाह) किया करते थे। ईशा की नमाज से पहले के वुज़ू से सुबह की नमाज अदा करते थे।
पहली बार हिन्द में प्रवेश मुल्तान
मुल्तान में प्रवेश के सम्बन्ध में आप स्वयं फ़रमाते हैं- "यहाँ (मुल्तान) में एक बुजुर्ग से भेंट हुई। उन बुज़ुर्ग ने भेंट के दौरान फ़रमाया 'प्रेम करने वालों की तौबा तीन प्रकार से होती है। प्रथम ग्लानि के कारण, दूसरा गुनाह तर्क करने के विचार से तीसरा अपने आपको हसद तथा जुल्म से पाक रखने के लिए।"
लाहौर (पाकिस्तान) में प्रवेश
मुल्तान से आप लाहौर में आये। यहाँ इस काल में बहरामशाह का पोता खुसरो मलिक बिन खुसरो शाह ग़ज़नवी शासन कर रहा था। यहां आप दो सप्ताह तक शेख पीर अली हुजवीरी (दातागंज बख्श) के मज़ार पर ज़िकरुल्लाह करते रहे। विदा के समय आपने यह शेर पढ़ा।
गंज बख्शे फ़ेज़े आलम, मज़हऱे नूरे खुदा
नाकीसँआरां पीरे कामिल, कामिलारा रहनुमा
लाहौर से बग़दाद वापसी
लाहौर से आप गज़नी में तशरीफ लाये। गज़नी से कह हिसार (अफगानिस्तान) व जिला हिसार के मार्ग से पहुंचे ।' बलख से इस्तराबाद में प्रवेश किया इस्तराबाद से आप रे (ईराक) पहुंचे। इसके पश्चात् वापस बग़दाद पहुँच कर मुर्शिद के हमराह सफ़र में रहे। विवरण आगे आयेंगे।
हज़रत ख़्वाजा उस्मान ए हारुनी की ग़रीब नवाज़ की तलब
तथा प्रेम में यात्रा
हज़रत ख्वाजा उस्मान ए हारुनी को हज़रत ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ से बोहोत ज़ेदा मोहब्बत थी। अतः जब ग़रीब नवाज़ मुरीद होने के बाद हारुन (ईरान) से बग़दाद की तरफ रवाना हो गये तो आपकी रवानगी के कुछ अर्से बाद हज़रत ख़्वाजा उस्मान ए हारुनी ने ग़रीब नवाज़ की
तलब (चाह) और मौहब्बत में हारून से बग़दाद का सफ़र किया। कुछ मंज़िल तय करने के बाद आप ऐसे स्थान (रे) पर पहुंचे जो आतिश परस्तों का निवास स्थान था ।
यहाँ एक आतिशकदा (अग्नि उपासक का घर) था। जिसमें 100 गधा गाड़ी (मसालेकुल सालेकीन के अनुसार 20 गाड़ी) लकड़ी रोज डाली जाती थी तथा सदैव आग जली रखी जाती थी। हज़रत ख़्वाजा उस्माने ए हारूनी यहां पहुंचकर एक पेड़ की छाया में बैठ गये। मुसल्ला बिछाकर नमाज़ में लीन हुए तथा अपने मुरीद ख्वाजा फ़ख़रुद्दीन से फ़रमाया 'आग लाकर रोज़ा अफ़तार के लिए भोजन तैयार करो।' जब आप आग आतिशकदा से लेने के लिए गये अग्नि उपासकों ने अग्नि देने से मना किया तथा कहा "यह हमारा देवता है। हम इसमें से अग्नि नहीं दे सकते।" सेवक ने हाज़िर होकर सब माजरा आपकी सेवा में आकर कहा। आप वुज़ू करके वहां गये। देखा एक बूढ़ा आदमी एक तख़्त पर बैठा है। एक सात वर्ष का लड़का उसकी गोद मे है। तथा बहुत से आतिश परस्त उसके चारों और बैठे हुए अग्नि की पूजा कर रहे हैं। आपने इस वृद्ध व्यक्ति से फ़रमाया " आग पूजने से क्या लाभ।" यह अल्लाह की बनाई हुई चीज है जो थोड़े से पानी से नष्ट हो जाती है। उस अल्लाह की पूजा क्यों नहीं करते जिसकी ये बनाई हुई है ताकि उपयोगी और लाभप्रद हो। उसने उत्तर दिया “ आग हमारे धर्म में सम्मानदायक और हमारी मुक्ति का कारण है।" आपने फ़रमाया " तुम उसको बहुत समय से पूजते हो आओ इसमें हाथ डालो। अगर ये मुक्ति का कारण है तो तुम्हे जलने से मुक्ति देगी।" उसने कहा "जलना अग्नि की विशेषता है। किसका साहस है जो इसमें हाथ डाले तथा सलामत रहे।" आपने फ़रमाया " यह अल्लाह की आज्ञा के अधीन है। क्या साहस जो ईश्वर की आज्ञा के बिना एक बाल भी जला सके।" ये फ़रमाकर आपने उसकी गोद में से उस लड़के को ले लिया तथा "बिसमिल्लाह हिर्रहमाँ निर्रहीम या नारो कूनी बरदव वा सलामुन अला इब्राहीम" (ऐ आग तू ठंडी हो जा और बेगुरेज़ हो जा इब्राहीम के हक़ में सूरये अम्बिया पारा 17 आयत नं. 68) कहकर आतिशकदा में प्रविष्ट हो गये। यह हाल देखकर अग्नि पूजक रोने लगे। आप चार क्षण तक आतिशकदे में रहकर लड़के के साथ सुरक्षित वापस बाहर आ गये। आग ने आपके पवित्र शरीर पर तथा कपड़ों पर कोई भी प्रभाव नहीं किया और ना ही उस लड़के को कोई हानि पहुंची। बूढ़ा व्यक्ति अपने लड़के को सुरक्षित देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और प्रश्न किया कि " तुमने आग में क्या देखा ?" लड़के ने उत्तर दिया कि "शेख के साथ बाग़ में सैर कर रहा था।" ये चमत्कार देखकर अग्नि पूजकों ने दिल से इस्लाम स्वीकार किया तथा आपके शिष्य बन गये आपने वृद्ध व्यक्ति का नाम अब्दुल्लाह और लड़के का नाम इब्राहिम रखा। ढाई वर्ष आप यहां (रे) में रहे सबको इस्लाम के नियम सिखाये। शेख अब्दुल्लाह को खिरका (पवित्र कोट) पहनाया। वह और उनके पुत्र औलियाओं में से हो गये। आपने यहां एक मस्जिद बनवाई। शेख इब्राहीम और अब्दुल्लाह (राज़ी) के मज़ार इस मस्जिद में है। बहुत से पवित्र लोगों के मज़ार यहां पर है। उनसे फैज जारी है आपका (दुसरा) भी यहां पर स्थित है। प्रत्येक वर्ष यहां उर्स होता है। यात्री तथा इच्छुक व्यक्ति एकत्रित होते हैं तथा फैज़ प्राप्त करते हैं। सैरुल आरेफ़ीन के लेखक मौलाना जमाली का ब्यान है मैंने इस स्थान के दर्शन किये हैं तथा दो सप्ताह यहां रहा हैं।
ग़रीब नवाज़ की हिन्द की यात्रा से वापसी तथा बैअत तक्ररख्ब (भक्ति प्रतिज्ञा)
जब रे (ईराक) से हज़रत ख्वाज़ा उस्मान ए हारुनी बग़दाद जा चुके थे उस समय ग़रीब नवाज़ इस्तराबाद से रे में आये। इसके बाद बग़दाद पहुँच कर हज़रत ख्वाज़ा उस्मान ए हारुनी से दूसरी बार बैअत का सम्मान प्राप्त किया। इस बैअत की घटनायें ग़रीब नवाज़ स्वयं इस प्रकार ब्यान फ़रमाते हैं।
'मुसलमानों का यह प्रार्थी मुईनउद्दीन हसन संजरी बग़दाद में ख़्वाजा जुनैद की मस्जिद में हज़रत ख़्वाजा उस्मान ए हारुनी की क़दमबोसी से प्रतिष्ठित हुआ। इस समय कई मशाइख आपकी ख़िदमत में थे। जब मैंने सिर ज़मीन पर रखा। पीरो मुर्शिद (गुरु) ने फ़रमाया दो रकात नमाज़ अदा कर मैंने अदा की" फिर फ़रमाया " काबे की दिशा की ओर बैठ" मैं बैठ गया। फिर फ़रमाया " सूरा-ए-बकर पढ़।" मैंने पढ़ी। फिर फ़रमान हुआ।" इक्कीस बार दुरूद शरीफ़ पढ़।" मैंने पढ़ा। इस के बाद आप (ख़्वाजा उस्मान ए हारुनी) खड़े हो गये तथा मेरा हाथ पकड़ कर आसमान की ओर किया तथा फ़रमाया। "आ, ताकि तुझे खुदा तक पहुँचा दूं।" इसके बाद कैंची लेकर प्रार्थी के सिर पर चलाई तथा चारो कोनों की तुर्की टोपी मेरे सिर पर रखी खास तरह की छड़ी अता फरमाई फिर कहा बैठ, मैं बैठ गया। फ़रमाया "हमारे खानवादे (सूफी वंश) में एक रात एक दिन का मुजाहेदे (प्रयत्नशील) का नियम है। तू आज रात लीन रह" ये सन्त आपके आदेशनुसार लीन रहा। दूसरे दिन जब सेवा में हाज़िर हुआ तो कहा "बैठ जा तथा चार हज़ार बार सूरऐं इखलास पढ़" मैंने पढ़ी फ़रमाया। आकाश की ओर देख मैंने देखा, पूछा कहां तक देखता है ? मैंने कहा अर्शे आज़म खुदा के सिंहासन तक। फ़रमाया ज़मीन की ओर देख, मैने देखा। फिर फरमाया कहां तक देखता है ? अर्ज किया पृथ्वी की अन्तिम स्थल (तहतुस्सरा) तक। फिर फ़रमाया हज़ार बार सूरए इखलास पढ़। मैंने पढ़ी। फिर फ़रमाया "फिर आकाश की ओर देख।" मैंने देखा। फिर पूछा अब कहां तक देखता है मैंने अर्ज किया हिजाबे अज़मत ( ईश्वर के सिंहासन) तक। फ़रमाया " आँखें बन्द कर मैंने बन्द कर ली।” फ़रमाया "खोल" मैंने खोल दी फिर मुझे अपनी दो अंगुलियाँ दिखाकर पूछा क्या देखता है। मैंने कहा हज़ार आलम तक देखता हूं इसके बाद सामने पड़ी हुई एक ईंट को उठाने का हुक्म दिया मैंने उठाई तो एक मुट्ठी दीनार प्राप्त हुए। फ़रमाया " इन को ले जाकर फक़ीरो में बांटो।" मैने हुक्म के अनुसार किया। इस के बाद आपकी सेवा में उपस्थित हुआ इर्शाद हुआ। "कुछ रोज़ हमारी संगति में रहो।" मैने अर्ज़ किया हुक्म बजा लाता हूँ ।
शेख शहाब उद्दीन सौहरवर्दी का आप से फ़ैज़याब
इस काल (562 हि.) में शेख शहाबुद्दीन सौहरवर्दी
आप ग़रीब नवाज़ की संगति से फ़ैज़याब हुए।
to be continue.....
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